कुछ कहना चाहती थी
मगर लफ्ज़ ज़हन में ही कैद रह गए
तुम्हारी ख़ुशी और गम्म का रस लेना चाहती थी
किन्तु रस भोगने के लिए अपने आइने समान ह्रदय के टुकड़े समेट ना सकी
उस गुपत्गु में दिल्ले बय्याँ करना चाहती थी
मगर तुम्हारी आँखों के नूर पर परछाई नहीं देख पाती
उन कमज़ोर लम्हों में एक सहारे की तालाश थी
लेकिन जिसे हम सहारा समझ बैठे वो एक परछाई निकली
चित के प्रेत दिल और दिमाग पर हावी होने लगे
ख्वाब और नींद भी साथ छोड़ गए
अपने अक्स से नफरत सी होनी लगी थी
खोखली ही सही, मगर तुम्हरी हंसी में हम भी हँसे
तुम्हारे क़दमों से कदम मिला न सके
मगर लफ्ज़ ज़हन में ही कैद रह गए
तुम्हारी ख़ुशी और गम्म का रस लेना चाहती थी
किन्तु रस भोगने के लिए अपने आइने समान ह्रदय के टुकड़े समेट ना सकी
उस गुपत्गु में दिल्ले बय्याँ करना चाहती थी
मगर तुम्हारी आँखों के नूर पर परछाई नहीं देख पाती
उन कमज़ोर लम्हों में एक सहारे की तालाश थी
लेकिन जिसे हम सहारा समझ बैठे वो एक परछाई निकली
चित के प्रेत दिल और दिमाग पर हावी होने लगे
ख्वाब और नींद भी साथ छोड़ गए
अपने अक्स से नफरत सी होनी लगी थी
खोखली ही सही, मगर तुम्हरी हंसी में हम भी हँसे
तुम्हारे क़दमों से कदम मिला न सके
काश तुमने एक बार मुड के देखा होता
तुम ना सही तुम्हारे साए से ही हम बतिया लिया करते थे
Image sourced from deviantART
A conversation in the dead of night with a friend inspired this poem.
Comments
this is sure one of the best as it is kind of heart thrown open on paper in form of words.....
"किन्तु रस भोगने के लिए अपने आइने समान ह्रदय के टुकड़े समेट ना सकी" - the line i loved the most.
and yes,you sure are getting close to perfection,as everyone pointed.
and yeah,will keep it close to my heart always....it will really remind me of something :)